1815 तक परमार वंश का ऐतिहासिक विवरण हिंदी में


राजा अजय पाल की पूर्ववर्ती परमार राजाओं की विषय में ज्ञान हेतु कोई भी ऐसा ठोस ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। राजा अजय पाल पैकेट द्वारा दी गई सूची के अनुसार 37 व राजा था जिसकी मृत्यु के संवत 446 ईसवी हुई इसी के शासनकाल में पहली बार विक्रमी 1415 अर्थात 1318 में गणराज्य की राजधानी चांदपुर गढ़ी से बदलकर श्रीनगर कर दी गई दूसरी महत्वपूर्ण घटना स्नेही सर्वप्रथम गढ़वाल के 52  गढ़ जीत करके एक विशाल गढ़वाल राज्य स्थापित कर लिया।



अजय पाल अपने समय का महानतम नरेश था कवि भरत ने अपनी पुस्तक मनोदाय में उसकी तुलना कृष्णा, युधिष्ठिर भीम और कुबेर से की है। अजय पाल ने देवलगढ़ में अपने लिए एक राज प्रसाद का निर्माण किया और देवी की प्रतिष्ठा की जय राजराजेश्वरी कहा जाता है। देवलगढ़ श्रीनगर से 8 मील दूर अंदर एक छोटी सी पहाड़ी पर बसा है यहां गोरख नाथ पंथ के सन्यासी शत नाथ का आवास स्थल है। अजय पाल भी इसी संप्रदाय का अनुयाई था। पंत के ही प्रत्यय अनुयाई भरथरी और गोपीचंद को भी अजय पाल की श्रेणी में रखा गया है।

जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने लिखा है गोरखनाथ एंड द कनफटा योगी मैं लिखा है कि राजा अजय पाल गोरख नाथ संप्रदाय के एक पंथ का भी संस्थापक था। नवनाथ कला तथा गोरक्ष के अनुसार अजय पाल संप्रदाय का 84 सिद्धओ में से एक सिद्ध था।


अजय पाल की तुलना भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ पर अंकित सम्राट अशोक से की जाती है जिस प्रकार कलिंग के युद्ध नर्स के अशोक ने तलवार को सदैव के लिए त्याग दिया था उसी प्रकार अजय पांडे 52 गढ़ को जीतने के बाद एक छत्र साम्राज्य स्थापित कर जिसके अंतर्गत देहरादून सहारनपुर, टिहरी उत्तरकाशी पौड़ी बिजनौर का एक भाग तथा चमोली आता था। शूरवीर सिंह जी के संग्रह में एक हस्तलिखित तांत्रिक विद्या से संबंधित ग्रंथ साबरी ग्रंथ है। जिसने अजय पाल को आदिनाथ कहकर संबोधित किया गया है। देवलगढ़ में विष्णु मंदिर की दाहिनी ओर ठीक सामने दीवार पर अजय पाल का एक पद्मासन की मुद्रा में चित्र बना है। उन्होंने कानों में कुंडल तथा सिर्फ में पगड़ी रखी है।


अजय पाल की बात कल्याण सा गद्दी पर बैठा कल्याण साहनी विजयपाल तक सिवाय नरेश ओं के नाम किंतु उस समय का विवरण उपलब्ध नहीं है।

बेकेट की सूची के अनुसार कल्याण साह के पश्चात सुंदर पाल, हंस देव पाल व विजय पाल सिंह शुरू हुए। अजय पाल की बात परमार वंश की 42 से नरेश सहजपाल ने सप्ताह अस्तित्व की जिसकी विषय में पर्याप्त विवरण मिलता है।

देवप्रयाग में 605 अर्थात सन 1548 क्षेत्रफल के मंदिर में एक शिलालेख मिला है।

देवप्रयाग में रघुनाथ जी के मंदिर में चढ़ी हुई घंटी एक विक्रमी 618 अर्थात 1561 में खुदी हुई कुछ पंक्तियां है और इस घंटी को सहजपाल ने चढ़ाया था।


सन 1548 की शिलालेख द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि सहजपाल संत 1548 के बाद गद्दी पर नहीं आया होगा ही सिरी रतूड़ी जी का मत है कि उसके अंतिम दिवसों की जो प्रमाणित तिथि प्राप्त होती है वह सन 1575 है इससे निष्कर्ष निकलता है कि सहजपाल ने गणराज्य पर लगभग 1548 से 1575 तक शासन किया। तभी भरत ने सहजपाल की प्रस्तुति में अनेक पंक्तियां लिखी है उनका कथन है कि सहजपाल की काल में गढ़वाल अपनी प्रगति के चरम उत्सव पर था। सहजपाल अकबर का समकालीन था लेकिन बरगी साम्राज्य की जड़े लगभग समरक उत्तरी भारत तक फैल चुकी थी किंतु गणराज्य अपने स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर स्वतंत्रता की वायर आनंद ले रहा था। डॉ अनिल श्रीवास्तव का कथन है कि मुगलिया सल्तनत का अपना समकालीन राजनीतिक शक्तियों से जो भी संबंध था उन्हें गढ़वाल राज्य एक महत्वपूर्ण स्थान है यद्यपि श्रीनगर गढ़वाल का दिल्ली से कूटनीतिक संबंध था किंतु प्रतीत होता है कि वह राज्य पूर्णता स्वतंत्र था।


सहजपाल के पश्चात गढ़वाल की सिहासन पर बलभद्र सा आसीन हुए। यह पहले शासक थे जिन्होंने अपने नाम के आगे साहब की उपाधि धारण की पूर्व कल्याण शाह के नाम के आगे सा शब्द लगा था। किंतु गणराज्य से इस परंपरा का चलना यह प्रथम बार था इनके पश्चात सभी प्रमाण नरेश ने शाह की उपाधि लगाना प्रारंभ कर दिया।

श्री भक्त दर्शन की धारणा है कि जब भारतीय इतिहास का अभागा से ज्यादा द्वारा सीखो अपने अनुज के हाथों प्राप्त हुआ तो उसने श्रीनगर में शरण ली। किंतु गढ़ नरेश ने उसे सिरमौर के औरंगजेब के पास भेज दिया। इसी से प्रसन्न होकर श्रीनगर की इस अनूठी सेवा के लिए दिल्ली के द्वारा उन्हें सहा की उपाधि दी गई। श्री भक्त दर्शन जी का यह कथन सच्चाई से कोसों दूर लगता है जबकि कल्याण का एवं बलभद्र 70 शताब्दी के उत्तरार्ध में शासन कर चुके थे।


डॉक्टर पातीराम जी के अनुसार की तल्ला सतारा से वर्तिका जाति के किसी व्यक्ति को राज्य के कार्य हेतु दिल्ली भेजा गया उस दिल्ली निवासी की अवधि मुगल काल हरम रुको ना हो गई कि ऐसा लगने लगा। उस महिला के हाथ में धागा बद्घ का रोग का पता लगाया शहंशाह इससे खुश होकर उन्होंने गढ़ वालियों को साहब की उपाधि दी थी लेकिन यह तथ्य भी कहीं से सत्य प्रतीत नहीं होता है। यद्यपि यह सत्य है कि गोरखनाथ बंद होने के कारण इस संसार को गुगली उपाधि से अजय पाल को संतुष्टि नहीं मिली होगी इसलिए वह और सन्यासी थे किंतु कल्याण साहब के बाद बलदेव पत्रता के काल में यह उपाधि अंतर्निहित हो गई हो सकता है कि और शब्द गढ़वाल में व्यवहारिक रूप से प्रचलित नहीं होगा।


उक्त तथ्यों के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि कल्याण शाह के काल में गढ़वाल अपने गौरव एवं गरिमा की बुलंदी पर था किंतु कल्याण साल की आंख मूंद के गढ़वाल राज्य के गौरव में एक उलझन आ गई राजपाल की पूर्व गढ़वाल की गरिमा कष्ट सहने पड़े। उसकी स्वतंत्रता एवं सरिता पर शक डगमगा गया किंतु जैसे ही सहजपाल अरुण हुए। गणराज्य की विभूतियां जैसे जमीन पर नहीं बल्कि आसमान पर इंकलाब लिख दिया गया पुराना नाम प्रसिद्धि गौरव सब लौटाया गौरव राज्य करीमा हो गया इसलिए शाह उपाधि गढ़वाल में पुनर्जन्म हुई।