गढ़वाल में परमार वंश का शासन


गढ़वाल वंश का सबसे प्रमुख वंश परमार वंश माना जाता है। उत्तराखंड के इतिहास में परमार वंश का अपना एक स्थान है और परमार वंश को जानने के लिए ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध है।


परमार वंश का संस्थापक

परमार वंश का पाल को माना जाता है इस तथ्य को बेकेट के द्वारा माना गया है। सम्राटों की सूची एवं सभासार ग्रंथ से सूचित होता है। इस प्रकार की विभिन्न विद्वान द्वारा चार सूचियां आज तक उपलब्ध है इन चारों में अभी तक सभासार ग्रंथ ग्रंथ की सूची प्रकाशित नहीं हुई है पहली सूची कप्तान हार्डविक द्वारा दी गई है दूसरी एक सरकारी विवरण से ली गई है और तीसरी जिसे श्री बेकेट का माना है। श्री श्री विलियम ने दी है जो कि यदा-कदा बेकेट से अलग मानी गई है। चौथी सूची एटकिंसन की है जो कि अल्मोड़ा से किसी पंडित की संग्रह से उपलब्ध हुई है जिसे अल्मोड़ा सूची भी कहा जाता है।

उक्त चारों सूची में सीजी बैकेट द्वारा दी गई परमार वंशी नर यीशु की सर्वाधिक सूची सत्य एवं प्रमाणित है क्योंकि उनकी नामावली एवं सूची परमार वंश के सुदर्शन शाह सभा सार ग्रंथ से मिलती है। इस ग्रंथ की मूल पांडुलिपि श्री शूरवीर सिंह पुराना दरबार जी हरि जोकि परमार वंश के ही थे उनकी संग्राम में आज भी विद्यमान है।

एक तथ्य विशेष उल्लेखनीय है कि गढ़वाल में प्रचलित एक लोकगीत ने परमार वंशावली का यही क्रम में जो कि

बैकेट की सूची में दिया गया है।

लोकगीत को परमार वंश की विरुदावली गाने वाले भाटो के वंशज पिंगल दास जी पिरोला नामक गांव में रहते है।  इनके दो अतिरिक्त दो अन्य सूचियां उत्तरकाशी के परशुराम तथा विश्वनाथ के मंदिरों में भी उपलब्ध है जिनमें प्रदीप सा से लेकर सुदर्शन तक के राजाओं का नाम उल्लेख है।


उत्तराखंड की परमार वंश के कनक पाल का आदि स्थान

पहले इस बात को जान लेना आवश्यक है कि परमार वंश के संस्थापक आनंदपाल कब और कहां से आए थे?

पंडित हरि कृष्ण धतूरे का मत है कि कनक पाल धार नगरी से आए थे। एटकिंसन का कथन है कि धार नगरी के पंवार वंश का एक युवक पर्वती क्षेत्र के पवित्र स्थानों की यात्रा हेतु आए थे रास्ते में कनक पाल को सोनपाल का राज्य पड़ा इसलिए वह सोनपाल से मिलने पहुंचे आरोपी युवक से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने युवक से अपनी कन्या का परिचय भी करा दिया। दहेज स्वरूप उन्हें जोधपुर का एक परगना भी प्रदान किया प्रसिद्ध इतिहासकार वॉल्टन को प्रतिपादित करते हैं।

उत्तराखंड के प्रसिद्ध इतिहासकार भक्त दर्शन ने लिखा है की कनक धार नगरी से आए। कर पातीराम अपनी पुस्तक गढ़वाल मॉडर्न में दिखते हैं कि संवत 756 में तत्कालीन राजवंश के कनक पाल मालवा से गढ़वाल आए यह चंद वंश के शासक थे इस क्षेत्र में प्रचलित पुरातन नियम के अनुसार गढ़वाल की शासक सोमपाल ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और अपनी पुत्री का विवाह भी उनसे करा दिया। सोनपाल के बाद कनकवाल गढ़वाल की गद्दी पर बैठे और सोनपाल के गढ़ के राजा बन गए।

किंतु उपयुक्त सत्य पूर्णता सत्य नहीं होते हैं कि कनक पाल धार नगरी से आए थे। इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण प्रमाण जो इस तथ्य को सिद्ध करता है कि गढ़वाल के परमार वंश की नरेश एवं उनका आदि पुरुष मेवाड़ गुजरात महाराष्ट्र के प्रवासी होकर गढ़वाल आए थे जिनको गुज्जर देश कहा जाता था।


गढ़वाल की सामाजिक सांस्कृतिक एवं धार्मिक जीवन में गणेश जी का स्थान सर्वोपरि है खुली का गणेश प्रतापगढ़ वालों के प्रत्येक घर में गणेश जी का चित्र पवित्रता एवं शगुन का प्रतीक माना जाता है। राजवंशों में तो यह प्रथा भी प्रचलित है। साथ ही एक विशेषता और यह भी है कि इन चित्रों में और मूर्तियों में गणेश जी के शूट दाई ओर मुड़ी हुई है

गणेश जी की नृत्य करती मुद्रा में एक प्राचीन मूर्ति जो जोशीमठ में है। अटल बिहारी के पुराना दरबार नामक राज प्रसाद के दरबार में गणेश जी की कास्ट मूर्ति है के अलावा दीवारों पर उनकी भित्ति चित्र अंकित है। पुराना दरबार का निर्माण परमार नरेश डोनेशन 1815 की गढ़वाल विभाजन के पश्चात प्रथम राज प्रसाद के रूप में किया था। गणेश जी की सूट की दाहिनी ओर मोड़ने की जो पुरातन परंपरा चली आ रही है वह गुजरात राजस्थान एवं महाराष्ट्र में सबसे अत्यधिक प्रचलित है जबकि उत्तर प्रदेश अप उत्तरी भारत के स्थान में गणेश जी की सूंड बाई तरफ मुड़ी रहती है इस शक्ति का प्रतिपादन शुक्र निधि ग्रंथ द्वारा किया गया है।

तू गढ़वाल में गणेश नरेश जी की सूट का दाहिनी ओर मुड़ना इस बात का सूचक है कि परमार वंश की नरेश गुर्जर देश से गढ़वाल आय एवं उन्होंने उक्त शैली का प्रचलन गढ़वाल में भी किया।


गुज्जर देश से आगमन का एक और प्रमाण आदिबद्री का मंदिर है गढ़वाल में स्थित आदि बद्री का मंदिर रचना सैनिक विश्वास एवं राजस्थान की सोलंकी मंदिरों की शैली से मिलती है।


यहां पर 1:00 बजे इस बात का उल्लेख करना है कि गढ़वाल एवं कुमार की अनेक राजपूत जातियां अपना आदि स्थान गुजरात प्रांत बताती है रूद्र सिंह तोमर तथा बाल कृष्ण शास्त्री लिखते हैं कि कनक पालकी शाम को रुला रावत परिवार रौतेला और बागड़ी नेगी गुज्जर देश से गढ़वाल आए।


कुछ इतिहासकार का यह भी भ्रम है कि कनकवाल धार नगरी से आए थे पर मार के ही वंशज सुरभि सिंह पुराना दरबार टिहरी के संदेह में कुछ ऐसे पत्र रखे हैं जो क्रांति का निवारण कर देते हैं।


सन 1927 में टिहरी राज्य के दीवान रायबहादुर चक्रधर जी वालों ने 23 मई को पत्रांक के अंतर्गत भेजने की तिथि 13 जून 1927 धार दरबार को पत्र भेजा था।


क्या कनक पाल परमार था

यह एक प्रमाणिक तथ्य की कनक पाल गुज्जर देश से आए हुए उन्होंने गढ़वाल में परमार वंश के नियम डाले प्रश्न उठता है कि क्या राजा कनकवाल परमार वंश के थे?

परमार वंश के कुल दीपक श्री सुदर्शन शाह ने सभासार नामक ग्रंथ वंशावली वृक्ष दिया है इसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि वे परमार वंश के हैं।

भारतीय लोक साहित्य नामक पुस्तक के रचयिता श्याम परमार का कथन है कि परमार वंश के लोग चाय बिहार में बसैया भारत के किसी अन्य भाग में उन लोगों में पेवाड शब्द अधिक प्रसिद्ध रहता है।


गढ़वाल की दिवंगत विभूतियों के लेखक श्री भक्त दर्शन सी ने भी यह लिखा है कि गढ़वाल के नरेश परमार वंश थे राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में एक प्रचलित है कि राजपूतों का जन्म आबू में अग्निकुंड से हुआ था। उनमें एक जाती परमार वंश की थी। आबू की तलहटी पर चांदपुरी नामक एक नगर बसाया गया था जोकि परमार का राजस्थान में एक प्रचलित स्थल है कनक पालने गढ़वाल में आकर अपने दुर्ग का नाम चांदपुर रखा था।




इसके अतिरिक्त माउंट आबू एवं गढ़वाल में कुछ अन्य समानताएं भी पाई जाती है उत्तरकाशी जिले के गोमुख एवं आबू के गोमुख की बनावट पूर्ण अतः एक जैसी है। जिस प्रकार आबू में कोटेश्वर है उसी प्रकार गढ़वाल में भी कोटि सूर्य गढ़वाल के चमोली जिले में गंगा की सहायक नदी मंदाकिनी अत्यधिक अभी तक नदी मानी जाती है उसी प्रकार आबू में संडे नामक एक मंदाकिनी है जो परमार वंश ने बनाया था। जिसका प्रमाण शांत मूर्ति मुनिराज लिखित आबू नामक पुस्तक से भी मिलता है।

इन दोनों बातों से प्रमाणित होता है कि परमार वंश का आबू से गहरा संबंध था।